गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

कैंसर भी रोक न पाया कलम के सिपाही को

भोपाल। ‘छिन गई है फताह- ए- लोहे- कलम तो क्या गम है, कि खूने जिगर में डूबो ली है उंगलियां मैंने।’ फैज का यह शेर पत्रकार इश्तियाक आरिफ के लिए मौजंू हैं। तमाम उम्र पूरी खुद्दारी के साथ कलम के सिपाही बने रहे 86 वर्षीय श्री आरिफ को गंभीर कैंसर की बीमारी भी कमजोर नहीं कर सकी। उनका बिस्तर से उठना मुमकिन नहीं है लेकिन वे लेटे- लेटे ही अपनी जीवनी के लिए डिक्टेशन दे रहे हैं।
श्री आरिफ उन पत्रकारों में से हैं जिन्होंने न सिर्फ आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की बल्कि भोपाल रियासत के भारत में विलय के लिए हुए आंदोलन में भी भाग लिया और जेल गए। उनमें खुद्दारी और वतनपरस्ती का जज्बा इतना गहरा है कि स्वाधीनता सेनानी के रूप में किसी पेशंन या फायदे के लिए वह आगे नहीं आए। हिंदी, उर्द, अरबी, फारसी, अंग्रेजी और संस्कृत के जानकार आरिफ जिंदगी की मुश्किलों से दो चार होते रहे लेकिन कलम की इज्जत को कभी दांव पर नहीं लगाया। कैंसर की बीमारी व गले की तकलीफ की वजह से अब उनके मुंह से लफ्ज भी बुमुश्किल निकल पाते हैं। भोपाल के विलय के आंदोलन के संबंध में जब उनसे भोपाल रेलवे स्टेशन पर तिरंगा फहराए जाने के संबंध में पूछा गया तो उनके मूंह से शब्द तो बुमुश्किल निकल पाए लेकिन हाथों के इशारे से उस वक्त के जज्बे को यह जरूर बताया। श्री आरिफ ने उर्दू मेंप्रदेश के इतिहास सहित कई किताबें लिखी हैं और इन दिनों भोपाल की राजनीतिक गतिविधियों व समाजिक बदलाव पर उनकी किताब ‘यादों की बाजियाफ्त’ पूरी होने के करीब है।
जिंदगी भर कलम को सहेजाः भोपाल पत्रकारिता संघ के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष श्री आरिफ जीवन भर अपनी कलम को ही सहेजते रहे। मुश्किलों में बराबर उनकी हमकदम रही पत्नी भी एक बार वह कुछ इस कदर नाराज हुईं कि कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों को फाड़ दिया। लेकिन जीवन संगिनी की इस नाराजगी को भी वह हंसते- हंसते झेल गए।
इलाज की सख्त जरुरतः जानलेवा बीमारी की गिरफ्त में होने के बावजूद वह अपनी किताब को लेकर फिक्रमंद हैं। श्री आरिफ का उस तरह से इलाज भी नहीं हो पा रहा है जिसकी जरूरत हैं, लेकिन इसकी चिंता उनके चेहरे पर दिखाई नहीं देती।
(नवदुनिया 6/10/09)

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