गुरुवार, 24 सितंबर 2009

मर्यादा टूटी तो बढ़ जाएँगे व्यक्तिगत हमले : कमला प्रसाद

विगत कुछ दिनों से प्रकाशित पत्रिकाओं-समाचार पत्रों के कुछ लेखों तथा हमारे सम्मानित लेखक ज्ञानरंजन की प्रलेस से संबंधित टिप्पणियों ने सांगठनिक स्तर पर कुछ सवाल पैदा किए हैं। प्रगतिशील लेखक संघ का महासिचव होने के नाते मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं उठाए गए सवालों के बारे में वस्तुस्थिति स्पष्ट करूँ। सवाल हैं कि प्रमोद वर्मा संस्थान द्वारा आयोजित ‘प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह’ में प्रलेस की भागीदारी क्यों हुई? प्रगतिशील ‘वसुधा’ ने गोविन्द वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से फोर्ड फाउंडेशन की राशि से प्रदत्त कबीर चेतना पुरस्कार चुपके-चुपके क्यों लिया?
पहले प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के बारे में बात करें। इस आयोजन में प्रलेस- जलेस और जसम के अलावा अन्य महत्वपूर्ण लेखकों को आमंत्रित किया गया था। संस्थान की ओर से भेजे गए पहले निमंत्रण पत्र में वे नाम थे, जिन्हें आमंत्रण भेजा गया था। दूसरे और आखिरी निमंत्रण पत्र में वे नाम थे, जिन्होंने आने की स्वीकृति दी थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि जिनकी स्वीकृति नहीं मिली,उन्हें छोड़ दिया गया। जहाँ तक प्रमोद वर्मा का सावल है- वे माक्र्सवादी और मुक्तिबोध तथा परसाई के साथी थे। वे प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मंडल में रहे हैं। छत्तीसगढ़ उनकी कर्मभूमि रही है। इसीलिए बहुत से लेखकों से उनके वैचारिक और पारिवारिक रिश्ते थे। विश्वरंजन तब उसी क्षेत्र में पदस्थ होने के कारण प्रमोद जी की मित्र मंडली में थे। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान बना तो- उसमें रूचि से वे सहयोगी बने। छत्तीसगढ़ के अनेक लेखकों के साथ आजकल वे इसके अयक्ष हैं। निर्णय का अधिकार अकेले उन्हें ही नहीं है। पृष्ठभूमि के रूप में इसे जानना जरूरी है। इस कार्यक्रम की घोषणा हुई- तो मैंन छत्तीसगढ़ प्रलेस के साथियों से पूछा कि क्या स्थिति है। छत्तीसगढ़ के साथियों ने सलाह दी कि प्रमोद वर्मा पर कार्यक्रम प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की ओर से हैं। सरकारी अनुदान नहीं है, इसीलिए आना चाहिए। मैंनें स्वीकृति देने वाले लेखकों में अनेक वैचारिक साथियों और संगठनों में शामिल लेखकों के नाम देखे तो जाना तय किया। समारोह में आने वालों में छत्तीसगढ़ के महतवपूर्ण लेखकों के अलावा खगेन्द्र ठाकुर, अशोक वाजपेयी, चन्द्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, कृष्ण मोहन, प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे प्रमुख थे। कृष्ण मोहन और भगवान सिंह को आलोचना पुरस्कार भी दिया गया था। अच्छी बात यह हुई कि प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन हुआ।
कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री और कुछ नेताओं के आने तथा विवादास्पद वक्तव्य देने पर लेखकों में व्यापक प्रतिक्रिया हुई- जिसका आक्रामक उत्तर लोगों ने अपने- अपने वक्तव्य में दिया। पूरे आयोजन में प्रमोद वर्मा की विचारधारा- ‘माक्र्सवाद’ बहस का आधार बनी रही। इसी दौरान कहीं से आपसी चर्चा में सुनाई पड़ा कि एक मित्र लेखक ने ‘पब्लिक एजेण्डा’ में विश्वरंजन अर्थात डीजीपी छत्तीसगढ़ के सलवा जुडूम के समर्थन और नक्सलपंथियों के विरोध में छपे इंटरव्यू को मुद्दा बनाकर कार्यक्रम में शामिल होना स्थगित किया है। उस समय तक लोगों ने ‘पब्लिक एजेण्डा’ का इंटरव्यू नहीं देखा था। इसके अलावा सीधे भाजपा शासित सरकारी कार्यक्रम न होने के कारण लोगो आए थे। उन्हें पहले से पता था कि सलवा जुडूम भाजपा सरकार के एजेण्डे में है। आमंत्रित लेखकों ने प्रमोद वर्मा स्मृति के पूरे अयोजन को लेकर कुछ आपत्तियाँ दर्ज कराईं। संस्थान के साथियों को परामर्श दिया गया कि इसे हमेशा सत्ता के प्रमाण से अलग रखा जाए।
छत्तीसगढ़ के प्रलेस- जलेस के साथियों तथा वामपंथी राजनीति दलेां ने लगाातार सलवा जुडूम के मसले पर सरकार का विरोध किया है। डाॅ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद उनकी रिहाई के लिए हुए आंदोलन में वे सभी लेखक शामिल रहे। लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में यह प्रमुख मुद्दा था। याद रखना होगा कि अपनी-अपनी तरह से हत्यारी नीतियाँ छत्तसीगढ़ की ही नहीं अन्य भाजपा शासित राज्यों की भी हैं। मध्यप्रदेश में दिनांे छह वर्षों में अल्पसंख्यकों पर सैकड़ों अत्याचार और हत्याएँ हुईं है। प्रलेस के लेखकों ने यहाँ लगातार सरकारी कार्यक्रमों का समय- समय पर विरोध और बहिष्कार किया है। एक सूची प्रकाशित की जानी चाहिए कि मध्यप्रदेश में इन सारे सरकारी कार्यक्रमों में किनकी- किनकी, कहाँ- कहाँ भागीदारी रही। मैं नहीं मानता कि गैर सरकारी प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शामिल होने मात्र से लेखकों का हत्यारों के पक्ष में खड़ा होना कहा जाएगा।
साथियों की ओर से उठाया गया अन्य सवाल ‘वसुधा’ के फोर्ड फाउण्डेशन की राशि से कबीर चेतना पुरस्कार लेने का है। मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि संस्था से स्पष्ट जानकारी के बाद, यह पुरस्कार राशि संस्कार की ओर से है फोर्ड फांउण्डेशन की ओर से नहीं- संपादकों ने चुपके-चुपके नहीं एक समारोह में प्राप्त किया है। लोग जानते हैं कि गोविन्द वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान इलाहाबाद केन्द्रिय विवि का एक प्रभगा है। दलित संस्थान केंद्र उसकी ईकाई है। दलित संस्थान केन्द्र की ओर से विगत कई वर्षांे से दलितों की स्थितियों पर अध्ययन होता रहा है। संस्थान ने दलितों के बारे में दस्तावेजीकरण के अलावा- इलाहाबाद तथा भोपाल जैसे अन्य शहरों में केंद्र की संगोष्ठियाँ हुई हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि हिन्दी का कौन सा महत्वपूर्ण लेखक है जो इन कार्यक्रमों में नहीं गया और मानदेय स्वीकार नहीं किया। जहाँ तक कबीर चेतना पुरस्कार की बात है- पहले हंस और तद्भव ने यह पुरस्कार लिए हैं। इनके संपादक भी संगठनों के हिस्सा हैं। प्रगतिशील ‘वसुधा’ लगातार दलित साहित्य प्रकाशित करती रही है। एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था, इसलिए निर्णायकों ने इस पत्रिका की पात्रता तय की है। प्रलेस से सीधे जुड़ी होने के कारण प्रगतिशील ‘वसुधा’ का आॅडिटेड आय- व्यय खुले पन्नों में है- कभी भी देखा जा सकता है।
दोनों सवालों का तथ्यात्मक ब्योरा पेश करने के बाद ेरा कहना है कि आज की परिस्थितियों में जिस तरह साम्प्रदायिक शक्तियों का जाल देश में फैल रहा है, समूची मानवीय संस्कृति का बाजरीकरण हो रहा है, मूल्यों को तहस- नहस करने की साजिश है, उस समय अपने- अपने संगठन को अधिक क्रांतिकारी अथवा व्यक्तिगत रूप से स्वंय को अतिशुद्ध सिद्ध करने की कोशिश सांस्कृतिक आंदोलन की एकजुटता को खंडित करेगी। मर्यादाएँ टूटने के बाद आंदोलन छूट जाएगा और लोग व्यक्तिगत हमलों पर उतर आएँगे। माना कि अब लेखकों का संगठन प्रेमचंद कालीन नहीं है, हो भी नहीं सकते। पर आज की स्थितियों में जो संभव है- वह हो रहा है। जरूरत पड़ने पर इनका जुझारू रूप देखा जा सकता है। इनके बिना सामाजिक सांस्कृतिक प्रश्नों पर आवश्यक सामूहिक पहल की कल्पना असंभव होगी। विरोधी शक्तियाँ इन्हें तोड़ना चाहती हैं। कदाचित इनके विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई तो वह दिन खतरनाक होगा।
नवदुनिया, भोपाल में छपी डाॅ. कमलाप्रसाद की प्रतिक्रिया

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