बुधवार, 5 मई 2010
डाॅ. महेन्द्र सिंह चौहान को पितृ-शोक
भोपाल। दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय की प्रवर परिषद के उपाध्यक्ष डाॅ. महेन्द्र सिंह चौहान के पिता श्री सूर्यपाल सिंह चैहान का 5 मई को देहावसान हो गया। वे लगभग 75 वर्ष के थे। अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त श्री चैहान विगत कुछ समय से बीमार थे। विगत दो दिनों से वे डायलिसिस पर थे। डाॅ. महेन्द्र सिंह चैहान का पता ‘डाॅ. महेन्द्र सिंह चौहान, ई-10/23, शिवाजी नगर, भोपाल’ एवं चलितवार्ता 09425602729 है।
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
नेहा शरद ने संग्रहालय को दी शरद जोशी की अनमोल धरोहर
भोपाल। 30 मार्च को अल्प प्रवास पर अचानक भोपाल आईं सुश्री नेहा शरद ने पाण्डुलिपि संग्रहालय को अनमोल धरोहर सौंपी, जिससे संग्रहालय परिषद अभिभूत है। अल्प प्रवास पर भोपाल आई नेहा शरद ने संग्रहालय निदेशक राजुरकर राज को अपने भोपाल आने की सूचना दी और यह भी इच्छा जताई कि उन्हें संग्रहालय पहुँचना है। संग्रहालय पहुँचकर नेहा जी ने स्व. शरद जोशी का बहुचर्चित नाटक ‘अंधों का हाथी’ की 67 पृष्ठों की हस्तलिखित मूल पाण्डुलिपि, शरद जी की एक हस्तलिखित कविता, उनका रेखा चित्र और कुछ पुस्तकें संग्रहालय को भेंट की। संग्रहालय निदेशक ने अनमोल विरासत को माथे से लगाकर स्वीकार किया और सुरक्षित सहेजने का वचन दिया। नेहा शरद ने संग्रहालय के लिये अनमोल धरोहर सौंपते हुए विश्वास जताया कि यह धरोहर न केवल यहां सुरक्षित रखी जायेगी, बल्कि शाधार्थी और जिज्ञासु इसका सदुपयोग भी कर सकेंगेे। उन्होंने संग्रहालय निदेशक को सलाह दी कि देश के नामचीन साहित्यकारों के परिवारों से सम्पर्क कर उनकी अनमोल विरासत को संग्रहालय के लिये प्राप्त करने का प्रयत्न करें। इस अवसर पर समाजसेविका साधना कार्णिक और संग्रहालय की सहायक निदेशक प्रबन्ध संगीता राजुरकर भी उपस्थित थी।
सुश्री नेहा शरद ने भावुक होकर कहा कि जिस घर में हम ‘पप्पा’ के साथ रहते थे, उस पर बुलडोज़र चलता देखने के बाद इस तरफ आने से भी दिल बैठने लगता था, लेकिन अब इस संग्रहालय की स्थापना और उसकी गतिविधियों से आश्वस्ति होती है कि हमारे पूर्वजों की धरोहर सुरक्षित रह सकेगी।
सुश्री नेहा शरद ने भावुक होकर कहा कि जिस घर में हम ‘पप्पा’ के साथ रहते थे, उस पर बुलडोज़र चलता देखने के बाद इस तरफ आने से भी दिल बैठने लगता था, लेकिन अब इस संग्रहालय की स्थापना और उसकी गतिविधियों से आश्वस्ति होती है कि हमारे पूर्वजों की धरोहर सुरक्षित रह सकेगी।
दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय में शरद जोशी की ‘राग भोपाली’ लोकार्पित
साहित्यिक तीर्थ पर गूँजा ‘गरज के मारो का तीर्थ’
भोपाल। 20 मार्च की शाम दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय के लिये इसी मायने में अविस्मरणीय रही कि मंचीय कवि सम्मेलनों में कविता के बीच गद्य (व्यंग्य विधा) से बरसांे तक श्रोताओं के दिलों पर राज करने वाले स्व. शरद जोशी की बेटी नेहा शरद संग्रहालय पधारी थीं। भोपाल पर केन्द्रित स्व. शरद जोशी द्वारा लेखों को पुस्तक रूप में लेकर यह शाम इस मायने में और भी महत्वपूर्ण रही कि स्व. शरद जोशी बरसों तक माता मन्दिर के पास स्थित सरकारी मकान (जो अब प्लेटिनम प्लाजा का एक हिस्सा बन चुका है) में रहे और नेहा शरद का बचपन इसके आसपास रह रहे तमाम रचनाकारों, पत्रकारों दुष्यन्त कुमार, स्व. राजेन्द्र अनुरागी स्व. शेरी भोपाली, स्व. अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, डाॅ. शंभुदयाल गुरू, स्व. श्री रामचरण दुबोलिया, डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय, श्री राजेन्द्र जोशी, श्री रामप्रकाश त्रिपाठी के बीच बीता और नेहा अपने बचपन को तलाशती भोपालवासियों से रूबरू हुईं। इसी के आसपास अब दुष्यन्त कुमार की स्मृति में पाण्डुलिपि संग्रहालय स्थापित है , जो साहित्यिक तीर्थ बन चुका है।
यूँ तो नेहा शरद टीवी कलाकार और सिने-अभिनेत्री है, परन्तु वर्तमान में उनकी लोकप्रियता स्व. शरद जोशी की व्यंग्य रचनाओं पर आधारित सब टीवी से प्रसारित होने वाले धारावाहिक ‘लापतागंज’ के कारण बढ़ी है और इस धारावाहिक में उनकी भूमिका क्रिएटिव डायरेक्टर की है। निश्चित ही स्व. शरद जोशी और स्व. इरफ़ाना शरद (रंगमंच कलाकार) की बेटी होने के कारण नेहा को विरासत में जो दृष्टि मिली है, उसने लापतागंज को सही मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है।
20 मार्च को स्व. शरद जोशी की कृति ‘राग भोपाली’ को लोकार्पित करने के लिए हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय (नई दिल्ली), जनसम्पर्क आयुक्त श्री मनोज श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री श्रीकांत आप्टे, सुश्री नेहा शरद और श्री केशव राय (मुम्बई) के साथ बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
राग भोपाली के इस लोकार्पण समारोह के अवसर पर कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने स्व. शरद जोशी के साथ बिताये समय को याद करते हुए कहा कि अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं को पैनी दृष्टि से पकड़कर व्यंग्य के माध्यम से श्रोताओं तक पहुँचाते थे। वह शरद जोशी जैसे असाधारण व्यक्ति के ही बस की बात थी और उनके हर व्यंग्य में शासन-प्रशासन में बैठे स्वार्थी तत्वों द्वारा भोले-भाले साधारण नागरिकों के प्रति होने वाले व्यवहार की पीड़ा झलकती थी। उन्होंने इस आयोजन में अपनी उपस्थिति को सौभाग्य मानते हुए कहा कि श्री राजुरकर राज और उनके सहयोगियों के प्रयासों से निश्चित ही साहित्य के क्षेत्र में बड़ा काम हो रहा है और इस काम को आगे बढ़ाने के लिए यथासंभव सभी का सहयोग मिलना चाहिये।
जनसम्पर्क आयुक्त श्री मनोज श्रीवास्तव ने इस आयोजन की अध्यक्षता करते हुए कहा कि वर्तमान समय में टी.वी. चैनल्स पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों के बीच ‘लापतागंज’ मरुद्यान की तरह लगता है। आज जबकि रबर की तरह खिंचते चले जा रहे टीवी सीरियल माहौल में विकृति पैदा कर रहे है, वहीं लापतागंज के पात्र बड़ी सहजता के साथ उन विसंगतियों को उजागर कर रहे हैं जिनके कारण लोग परेशान थे, हैं, और हो रहे हैं। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि स्व. जोशी के व्यंग्य में हमेशा ही ‘नैतिकता-बोध’ सशक्त ढंग से उभरकर आया है।
इस अवसर पर कार्यक्रम की मुख्य अतिथि सुश्री नेहा शरद ने अपने ‘पप्पा’ यानि स्व. शरद जोशी को बड़ी शिद्दत से याद करते हुए उनके दो लेख ‘गरज के मारो का तीर्थ नगर भोपाल, और ‘अपनी-अपनी मछली’ का वाचन कर जहाँ श्रोताओं को गुदगुदाया, वहीं इन दो रचनाओं में निहितार्थ ने लोगों को शरद जोशी की व्यंग्य की पैनी धार और उसकी ताकत से परिचित करवाया। सुश्री नेहा शरद ने ’लापतागंज’ के बारे में अपनी बात रखते हुए कहा कि कई लोग पूछते हैं कि ‘लापतागंज’ में शरद जोशी कहाँ है? तो मैं मानती हूँ कि पप्पा ने जिस भावना और सोच के साथ व्यंग्य लिखे हैं वह ‘तेज’ ‘लापतागंज’ में मैं नहीं ला पाई हूँ, पर मैं अपने पापा जैसा व्यक्ति कहाँ से लाऊँ जो उनकी रचनाओं को संवाद के रूप में हूबहू प्रस्तुत कर सके। फिर भी मुझे लगता है कि शरद जोशी के बहाने यह जो काम शुरू हुआ है उसका सिलसिला आगे बढ़ेगा और अच्छे साहित्यकारों की कृति समाज के सामने आ पायेगी।
निश्चित ही नेहा जी का बचपन दक्षिण तात्या टोपे नगर के जिस मकान और गलियों में बीता है वहाँ से उस धरोहर गायब हो जाने से वे भावनात्मक रूप से आहत हुई और उन्होंने कहा कि शरद जोशी जिस मकान में रहते थे, वह अरबों का था, लेकिन अब वह केवल करोड़ों का रह गया। उनकी स्मृति को बचाकर रखा जाना चाहिये था, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया, यह मेरी समझ से परे है। उस मकान के टूटने पर भोपाल के साहित्यकारों के मौन पर भी उन्होंने अफसोस जताया।
सुश्री नेहा ने शरद जोशी के व्यक्तित्व कृतित्व को याद करते हुए कहा कि ‘राग भोपाली’ में पापा के वो लेख संकलित हैं जो भोपाल पर केन्द्रित हैं। इस अवसर पर उन्होंने बताया कि इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से ‘राग भोपाली’ के बाद शरद जोशी की पाँच और पुस्तकें ‘घाव करे गंभीर’, ‘वोट ले दरिया में डाल’, ‘रहा किनारे बैठ’ और ‘परिक्रमा’ छपकर आ रही हैं, तथा टीवी वाले उनकी कृतियों पर काफी काम करना चाहते हैं।
इस आयोजन में आधार वक्तव्य श्री श्रीकांत आप्टे ने दिया वही श्री नरेन्द्र दीपक ने सभी का स्वागत किया। आभार श्री राजेन्द्र जोशी ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन संग्रहालय के निदेशक श्री राजुरकर राज ने किया। इस आयोजन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि साहित्यकारों के अलावा वे लोग जिन्होंने नेहा शरद का बचपन देखा था या उन्हें पढ़ाया था और जो उनके साथ पढ़े थे ऐसे लोग उनसे मिलने आये और नेहा जी ने अपना एक दिन सिर्फ ऐसे ही लोगों के साथ बिताया।
करुणा राजुरकर
भोपाल। 20 मार्च की शाम दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय के लिये इसी मायने में अविस्मरणीय रही कि मंचीय कवि सम्मेलनों में कविता के बीच गद्य (व्यंग्य विधा) से बरसांे तक श्रोताओं के दिलों पर राज करने वाले स्व. शरद जोशी की बेटी नेहा शरद संग्रहालय पधारी थीं। भोपाल पर केन्द्रित स्व. शरद जोशी द्वारा लेखों को पुस्तक रूप में लेकर यह शाम इस मायने में और भी महत्वपूर्ण रही कि स्व. शरद जोशी बरसों तक माता मन्दिर के पास स्थित सरकारी मकान (जो अब प्लेटिनम प्लाजा का एक हिस्सा बन चुका है) में रहे और नेहा शरद का बचपन इसके आसपास रह रहे तमाम रचनाकारों, पत्रकारों दुष्यन्त कुमार, स्व. राजेन्द्र अनुरागी स्व. शेरी भोपाली, स्व. अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव, डाॅ. शंभुदयाल गुरू, स्व. श्री रामचरण दुबोलिया, डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय, श्री राजेन्द्र जोशी, श्री रामप्रकाश त्रिपाठी के बीच बीता और नेहा अपने बचपन को तलाशती भोपालवासियों से रूबरू हुईं। इसी के आसपास अब दुष्यन्त कुमार की स्मृति में पाण्डुलिपि संग्रहालय स्थापित है , जो साहित्यिक तीर्थ बन चुका है।
यूँ तो नेहा शरद टीवी कलाकार और सिने-अभिनेत्री है, परन्तु वर्तमान में उनकी लोकप्रियता स्व. शरद जोशी की व्यंग्य रचनाओं पर आधारित सब टीवी से प्रसारित होने वाले धारावाहिक ‘लापतागंज’ के कारण बढ़ी है और इस धारावाहिक में उनकी भूमिका क्रिएटिव डायरेक्टर की है। निश्चित ही स्व. शरद जोशी और स्व. इरफ़ाना शरद (रंगमंच कलाकार) की बेटी होने के कारण नेहा को विरासत में जो दृष्टि मिली है, उसने लापतागंज को सही मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है।
20 मार्च को स्व. शरद जोशी की कृति ‘राग भोपाली’ को लोकार्पित करने के लिए हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय (नई दिल्ली), जनसम्पर्क आयुक्त श्री मनोज श्रीवास्तव, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री श्रीकांत आप्टे, सुश्री नेहा शरद और श्री केशव राय (मुम्बई) के साथ बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थे।
राग भोपाली के इस लोकार्पण समारोह के अवसर पर कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने स्व. शरद जोशी के साथ बिताये समय को याद करते हुए कहा कि अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं को पैनी दृष्टि से पकड़कर व्यंग्य के माध्यम से श्रोताओं तक पहुँचाते थे। वह शरद जोशी जैसे असाधारण व्यक्ति के ही बस की बात थी और उनके हर व्यंग्य में शासन-प्रशासन में बैठे स्वार्थी तत्वों द्वारा भोले-भाले साधारण नागरिकों के प्रति होने वाले व्यवहार की पीड़ा झलकती थी। उन्होंने इस आयोजन में अपनी उपस्थिति को सौभाग्य मानते हुए कहा कि श्री राजुरकर राज और उनके सहयोगियों के प्रयासों से निश्चित ही साहित्य के क्षेत्र में बड़ा काम हो रहा है और इस काम को आगे बढ़ाने के लिए यथासंभव सभी का सहयोग मिलना चाहिये।
जनसम्पर्क आयुक्त श्री मनोज श्रीवास्तव ने इस आयोजन की अध्यक्षता करते हुए कहा कि वर्तमान समय में टी.वी. चैनल्स पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों के बीच ‘लापतागंज’ मरुद्यान की तरह लगता है। आज जबकि रबर की तरह खिंचते चले जा रहे टीवी सीरियल माहौल में विकृति पैदा कर रहे है, वहीं लापतागंज के पात्र बड़ी सहजता के साथ उन विसंगतियों को उजागर कर रहे हैं जिनके कारण लोग परेशान थे, हैं, और हो रहे हैं। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि स्व. जोशी के व्यंग्य में हमेशा ही ‘नैतिकता-बोध’ सशक्त ढंग से उभरकर आया है।
इस अवसर पर कार्यक्रम की मुख्य अतिथि सुश्री नेहा शरद ने अपने ‘पप्पा’ यानि स्व. शरद जोशी को बड़ी शिद्दत से याद करते हुए उनके दो लेख ‘गरज के मारो का तीर्थ नगर भोपाल, और ‘अपनी-अपनी मछली’ का वाचन कर जहाँ श्रोताओं को गुदगुदाया, वहीं इन दो रचनाओं में निहितार्थ ने लोगों को शरद जोशी की व्यंग्य की पैनी धार और उसकी ताकत से परिचित करवाया। सुश्री नेहा शरद ने ’लापतागंज’ के बारे में अपनी बात रखते हुए कहा कि कई लोग पूछते हैं कि ‘लापतागंज’ में शरद जोशी कहाँ है? तो मैं मानती हूँ कि पप्पा ने जिस भावना और सोच के साथ व्यंग्य लिखे हैं वह ‘तेज’ ‘लापतागंज’ में मैं नहीं ला पाई हूँ, पर मैं अपने पापा जैसा व्यक्ति कहाँ से लाऊँ जो उनकी रचनाओं को संवाद के रूप में हूबहू प्रस्तुत कर सके। फिर भी मुझे लगता है कि शरद जोशी के बहाने यह जो काम शुरू हुआ है उसका सिलसिला आगे बढ़ेगा और अच्छे साहित्यकारों की कृति समाज के सामने आ पायेगी।
निश्चित ही नेहा जी का बचपन दक्षिण तात्या टोपे नगर के जिस मकान और गलियों में बीता है वहाँ से उस धरोहर गायब हो जाने से वे भावनात्मक रूप से आहत हुई और उन्होंने कहा कि शरद जोशी जिस मकान में रहते थे, वह अरबों का था, लेकिन अब वह केवल करोड़ों का रह गया। उनकी स्मृति को बचाकर रखा जाना चाहिये था, पर सरकार ने ऐसा नहीं किया, यह मेरी समझ से परे है। उस मकान के टूटने पर भोपाल के साहित्यकारों के मौन पर भी उन्होंने अफसोस जताया।
सुश्री नेहा ने शरद जोशी के व्यक्तित्व कृतित्व को याद करते हुए कहा कि ‘राग भोपाली’ में पापा के वो लेख संकलित हैं जो भोपाल पर केन्द्रित हैं। इस अवसर पर उन्होंने बताया कि इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से ‘राग भोपाली’ के बाद शरद जोशी की पाँच और पुस्तकें ‘घाव करे गंभीर’, ‘वोट ले दरिया में डाल’, ‘रहा किनारे बैठ’ और ‘परिक्रमा’ छपकर आ रही हैं, तथा टीवी वाले उनकी कृतियों पर काफी काम करना चाहते हैं।
इस आयोजन में आधार वक्तव्य श्री श्रीकांत आप्टे ने दिया वही श्री नरेन्द्र दीपक ने सभी का स्वागत किया। आभार श्री राजेन्द्र जोशी ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन संग्रहालय के निदेशक श्री राजुरकर राज ने किया। इस आयोजन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि साहित्यकारों के अलावा वे लोग जिन्होंने नेहा शरद का बचपन देखा था या उन्हें पढ़ाया था और जो उनके साथ पढ़े थे ऐसे लोग उनसे मिलने आये और नेहा जी ने अपना एक दिन सिर्फ ऐसे ही लोगों के साथ बिताया।
करुणा राजुरकर
जया बच्चन ने देखा पाण्डुलिपि संग्रहालय
भोपाल। हिन्दी सिने जगत की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री श्रीमती जया बच्चन ने 15 अपै्रल गुरूवार की शाम बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि पहुँचकर संग्रहालय पदाधिकारियों को हैरत में डाल दिया। वे अपनी छोटी बहन अभिनेत्री एवं रंगकर्मी श्रीमती रीता वर्मा के साथ संग्रहालय पहुँची। उन्हें अचानक संग्रहालय में देखकर निदेशक राजुरकर राज एवं सहायक निदेशक संगीता राजुरकर को सुखद आश्चर्य हुआ। श्रीमती बच्चन ने संग्रहालय का भ्रमण किया और इसकी स्थापना एवं संचालन की प्रशंसा की। जया बच्चन ने संग्रहालय में अपने ससुर डाॅ. हरिवंशराय बच्चन के पत्र, उनके हाथ का छापा और उनके हस्ताक्षरयुक्त फोटो के साथ अपने विवाह का आंमत्रण तथा फोटो देखकर अभिभूत हो गईं। संग्रहालय में दुष्यन्त कुमार का एक हस्तलिखित पत्र भी है, जो उन्होंने अमिताभ बच्चन को लिखा था। श्रीमती जया बच्चन ने पत्र का पूरा मजमून भी पढ़ा। श्रीमती बच्चन ने संग्रहालय में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का बांग्ला लिपि में हस्तलिखित पत्र भी देखा और गद्गद हो गईं। इस अनमोल विरासत के रखरखाव के सम्बन्ध में उन्होंने राजुरकर राज से चर्चा की। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की दरी और नरेश मेहता की धरोहर पर भी उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की। निदेशक के ये कहने पर कि आप इतनी अचानक पधारीं कि हम किसी तरह स्वागत नहीं कर पा रहे हैं, श्रीमती बच्चन ने कहा कि मैं अपने घर ही आई हूँ, स्वागत की क्या बात है। श्रीमती बच्चन ने निदेशक को आश्वस्त किया कि डाॅ. हरिवंशराय बच्चन की अनमोल धरोहर वे संग्रहालय को भेंट करेंगी। |
गुरुवार, 18 मार्च 2010
यात्रा संस्मरण/अपने ही शहर में अनजान : मनोज सिंह
करीब 25 साल के लंबे अंतराल के बाद अपने शहर में जाना हुआ था। यहां युवा जीवन के महत्वपूर्ण पांच वर्ष बिताये थे। भोपाल के मौलाना आजाद इंजीनियरिंग कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की थी। यह मध्य भारत का एक प्रमुख तकनीकी शिक्षण संस्थान है। यह कहना अनुचित न होगा कि यहां दाखिला कड़ी प्रतिस्पर्द्धा के बाद ही मिलता है और बेहद पढ़ाकू व किस्मत वाले छात्र ही इन संस्थाओं में पहुंच पाते हैं। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं का स्तर और अधिक तीव्र हुआ है और इस तरह के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश पाना दिन-प्रतिदिन छात्रों के लिए एक सपने से कम नहीं। स्कूल व कक्षाओं में अव्वल रहने वाले इन छात्रों में भी अतिरिक्त ऊर्जा, मस्ती, सपने व उमंग का होना स्वाभाविक और नैसर्गिक है। युवावस्था में इसे उम्र का तकाजा भी कहा जा सकता है। ऊपर से हॉस्टल में रहने वालों का छात्र जीवन तो विशेष होता ही है। सबकी अपनी-अपनी कहानियां, जवानी के उन्मुक्त क्षणों की स्वप्निल दुनिया में कई रंग भरे होते हैं। चुनौतियां और कठिनाइयां भी हैं। दूसरी ओर, छोटी उम्र अर्थात अनुभवहीनता, तो फिर अपरिपक्वता तो होगी ही। ऐसे में घर के अनुशासित माहौल से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होते ही जीवन कभी-कभी अनियंत्रित हो जाता है। स्वतंत्रता और उच्छृंखलता में बहुत बारीक अंतर होता है। और इसी को पहचानने में कई बार चूक हो जाती है। इसे बचपन की नादानी कहकर नहीं बचा जा सकता। संपूर्ण स्वतंत्रता कई बार सर्वनाश का कारण भी बन जाती है। खैर, जो सवारी करते हैं वही खेल के मैदान में जीत भी हासिल करते हैं और अमूमन हॉस्टल जीवन से छात्र मजबूत व योग्य नागरिक बनकर बाहर निकलते हैं।
इतने वर्षों के बाद जाने के बावजूद शहर की मुख्य सड़कें ही नहीं कॉलेज के आसपास की गलियां, बाजार, दुकानें, यहां तक कि सड़क किनारे लगे हुए कई प्रतीकचिह्न जाने-पहचाने लग रहे थे। मगर उनसे अपने आपको जोड़ना, तारतम्य बनाना, इतना आसान नहीं। असल में पुरानी यादें मनुष्य के मस्तिष्कपटल पर अंकित व संचित होती हैं। जिसे रिवाइंड करने पर ही वो चित्र और संदर्भ उभर पाते हैं। और फिर खुली आंखों से आदमी इसे देखता रह जाता है। अन्यथा वर्तमान के धरातल पर आप अपने आप को चाहे जितना रुककर ढूंढ़ने की कोशिश करें कुछ हाथ नहीं लगता। कॉलेज के प्रांगण में कुछ विशेष नहीं बदला। हां, कुछ नई इमारतें जरूर बन गई। हमारी सामाजिक व्यवस्था पर समय का चक्र भी कमाल घूमता है। सब कुछ उसी तरह था सिवाय इसके कि हमारे स्थान पर नये छात्र आ चुके थे। हां, हम में से कुछ एक इस बीच उसी कालेज में अध्यापन का कार्य करते करते प्रोफेसर के पद तक पहुंच चुके थे। उनके लिए पीछे मुड़कर देखना शायद ज्यादा मुश्किल होता होगा, क्योंकि निरंतरता में यादों को संजोकर दिल के किसी कोने में छिपाकर समेटे रखना सरल नहीं। वर्तमान से निकलकर भूतकाल में जाना आम आदमी के लिए आसान नहीं। वैसे भी रोजमर्रा के जीवन में, रोटी-दाल के चक्कर से निकल पाना हरेक के लिए संभव नहीं।
अपने ही कॉलेज में, अपने प्रॉध्यापकों के बीच में, अभी कुछेक रिटायर नहीं हुए थे, किसी भी पूर्व छात्र के द्वारा संक्षिप्त उदबोधन देना, इन विशिष्ट लमहों को जीवन में एक पर्व के समान माना जाना चाहिए। मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं जो अपने शिक्षकों के बीच में, अपने लेखन के अनुभवों को बांटकर, उनसे अतिरिक्त आशीर्वाद प्राप्त कर सका। उनके लिए मैं आज भी एक युवा छात्र ही था। और उनके सामने जाते ही मुझमें भी बाल-सुलभ शरारतें हिचकोले मारने लगी थीं। मैं एक बार फिर अपनी उम्र से कहीं छोटे होने जैसा व्यवहार कर रहा था। घर-परिवार-समाज में बुजुर्गों के रहते हुए हम सदैव छोटे बने रहते हैं। इस सत्य को हम जानते तो हैं मगर इसका अनुभव किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस दौरान वर्तमान छात्रों से बातचीत हुई और कुछ बिंदुओं ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था। तकरीबन सभी छात्रों के पास मोटरसाइकिल और हॉस्टल के कमरे में कंप्यूटर मिला। संचार के युग में इंटरनेट का होना औचित्यपूर्ण लगा परंतु मोबाइल की आवश्यकता पर मैं असमंजस में था। सैकड़ों की तादाद में बाइक के खड़े होने से हॉस्टल में चलने-फिरने की जगह नहीं रह गई थी। यह दृश्य हर दूसरे कॉलेज के छात्रावास में देखा जा सकता है। इसकी प्राथमिकता व जरूरत पर मेरी ओर से एक बड़ा प्रश्नचिह्न उभरा था। युवावस्था में यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो है ही, माता-पिता पर पैसे का अतिरिक्त बोझ। नयी पीढ़ी के लाखों-हजारों छात्रों के द्वारा खरीदी जाने वाली मोटरसाइकिल के कारण एक व्यवसायी को तो फायदा हो सकता है लेकिन प्रकृति का बेवजह दोहन और फलस्वरूप पर्यावरण को असंतुलित करना, निष्पक्ष बहस का मुद्दा होना चाहिए। तमाम हॉस्टल, कॉलेज से तकरीबन किलोमीटर के फासले पर होंगे और इस उम्र में इतनी दूरी पैदल तय की जानी चाहिए। घास और झाड़ियों के बीच में से सुबह-दोपहर-शाम चार-छह बार पैदल चलना, जाने-अनजाने ही स्वस्थ शरीर के लिए संजीवनी-बूटी का काम कर सकता है। मजबूत शरीर किसी भी कीमत पर चारदीवारी के अंदर बंद जिम के द्वारा नहीं बनाया जा सकता। इन आधुनिक उपकरणों से शरीर को गठीला या पतला तो बनाया जा सकता है, स्वस्थ नहीं। इसीलिए स्कूल-कॉलेज जीवन में पेट्रोलचलित वाहन छात्रों को देने के मुद्दे पर परिवार-समाज व कॉलेज प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है। हां, शहर और मार्केट दूर होने पर, पैदल जाना हमेशा संभव नहीं, ऐसे में साइकिल एक बेहतर विकल्प हो सकती है। अन्यथा नियमित बस की व्यवस्था एक उत्तम साधन होगा। यह सामूहिक और सामाजिक व्यवहार में अपनत्व भी बढ़ाता है। वरना आधुनिक तकनीकियां व सुविधाएं इंसान को इंसान से दूर करती हैं। आज के युवा छात्रों में एकाकीपन और उससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों को बढ़ते हुए आम देखा जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि इन वर्षों में छात्राओं ने अधिक विकास किया है। उच्चशिक्षा में लड़कियों की बढ़ती संख्या इस क्षेत्र में इनकी सफलता का प्रमाण है। बातचीत करने पर आसानी से समझा जा सकता है कि आधुनिक युवावर्ग में लड़कियां अधिक स्वतंत्रत होने के साथ-साथ समझदार, सतर्क, स्वावलंबी, स्वाभिमानी, ऊर्जा व स्फूर्ति से भरपूर हैं। वे लड़कों से कहीं अधिक मेहनती, केंद्रित और संतुलित दिखाई दीं। उनके सपने उनके अपने थे और आदर्श महान। जबकि अधिकांश लड़के इंजीनियर बनते ही नौकरी और पैकेज के चक्कर में अधिक दिखाई दिए। यहां सामाजिक दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारी भी कारण हो सकती है। शायद यही कारण है जो अधिकांश कमाने और बसने के लिए आतुर दिखे। हां, आईआईएम व मैनेजमेंट का प्रभाव नजर आया। इस क्षेत्र में भी जाने के लिए लड़कियों में अधिक उत्सुकता नजर आई। प्रशासनिक और पुलिस सेवा में जाने का जुनून भी कन्याओं में अधिक दिखाई दिया। यह आश्चर्य करने वाला था।
यह सर्वविदित है कि हिन्दुस्तान में अव्वल छात्र आमतौर पर इंजीनियरिंग की ओर चले जाते हैं। इसे अन्य क्षेत्र के महान व सफल लोग अन्यथा न लें। अगर यही छात्र अपने प्राकृतिक व बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल अन्य क्षेत्रों में करें तो कमाल कर सकते हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री के कारण कई मामलों में वो अपनी संभावनाओं को सीमित कर लेते हैं। वे एक अच्छे वकील बन सकते हैं, मीडिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ सकते हैं। कला के क्षेत्र में भी संभावनाओं की कमी नहीं। छात्रों के बीच जाकर यह सवाल पूछने पर कि राजनीति में जाना उनके जीवन की मंजिल क्यों नहीं? स्वयं का व्यवसाय क्यों नहीं? अधिकांश के पास इसका सीधा जवाब नहीं था। शायद जोखिम लेने की इच्छाशक्ति नहीं थी। यहां सवाल उठता है कि इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी क्या वे एक सफल व अच्छे संपादक और लेखक नहीं बन सकते? तकनीकी के क्षेत्र में हजारों-लाखों न्यायिक उलझनों को सुलझाने के लिए वकालत नहीं कर सकते? वे कम से कम एक अच्छे विज्ञान फंतासी के लेखक तो बन ही सकते हैं। और फिर विज्ञान और तकनीकी तो सभी व्यवसाय के केंद्र में होता है। यहां वे बेहतर ढंग से हाथ आजमा सकते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी और सामाजिक कार्य के लिए समर्पित व्यक्तित्व वाले छात्र थोड़ा कोशिश करें तो राजनीति में भी चमका जा सकता है। अगर आज की युवा पीढ़ी में से होनहार छात्र राजनीति में नहीं जाएंगे तो फिर विश्वपटल पर देश को महाशक्ति बनाए जाने का सपना कैसे पूरा होगा? इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं था। यह इतना आसान भी नहीं।
भोपाल एक बेहद खूबसूरत शहर है। विशिष्ट संस्कृति व स्थानीय बोली यहां की विशेष पहचान है। खुशी इस बात की है कि विभिन्न व्यवस्थाओं ने इन्हें बनाए रखने की सफल कोशिश की है। दशकों से, भारत भवन के कारण, भोपाल कला, साहित्य व रंगमंच के क्षेत्र में देश का केंद्र बिंदु रहा है। उसी शहर में एक साहित्य-प्रेमी के द्वारा साहित्यकारों की यादगार वस्तुओं को संग्रहीत करने की कल्पना साकार रूप ले रही है। लोकप्रिय साहित्यकारों की पांडुलिपियां व पत्रों आदि को संग्रह कर दुष्यंत पांडुलिपि संग्रहालय का अस्तित्व अपनी अनोखी पहचान बनाने में कामयाब हुआ है। यह अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है जबकि अभी प्रारंभिक अवस्था में है। देश-विदेश का छोटा-बड़ा हर लेखक, भोपाल आने पर इस संग्रहालय को देखने अवश्य जाता है। एक व्यंग्यकार ने तो यहां तक कह दिया कि यहां आकर लगता है कि अब मर ही जाएं, जिससे कि कम से कम मेरी व्यक्तिगत चीजें भी इस संग्रहालय में जगह पा सकें, और मैं हमेशा के लिए जीवित रह सकूं। मुझे भी यहां पर बतौर लेखक स्थानीय पत्रकारों, लेखकों, पाठकों व सृजनकर्ताओं से बातचीत का मौका मिला। अपने ही शहर में एक नयी पहचान प्राप्त करने का यह सुखद अनुभव था।
मनोज सिंह
इतने वर्षों के बाद जाने के बावजूद शहर की मुख्य सड़कें ही नहीं कॉलेज के आसपास की गलियां, बाजार, दुकानें, यहां तक कि सड़क किनारे लगे हुए कई प्रतीकचिह्न जाने-पहचाने लग रहे थे। मगर उनसे अपने आपको जोड़ना, तारतम्य बनाना, इतना आसान नहीं। असल में पुरानी यादें मनुष्य के मस्तिष्कपटल पर अंकित व संचित होती हैं। जिसे रिवाइंड करने पर ही वो चित्र और संदर्भ उभर पाते हैं। और फिर खुली आंखों से आदमी इसे देखता रह जाता है। अन्यथा वर्तमान के धरातल पर आप अपने आप को चाहे जितना रुककर ढूंढ़ने की कोशिश करें कुछ हाथ नहीं लगता। कॉलेज के प्रांगण में कुछ विशेष नहीं बदला। हां, कुछ नई इमारतें जरूर बन गई। हमारी सामाजिक व्यवस्था पर समय का चक्र भी कमाल घूमता है। सब कुछ उसी तरह था सिवाय इसके कि हमारे स्थान पर नये छात्र आ चुके थे। हां, हम में से कुछ एक इस बीच उसी कालेज में अध्यापन का कार्य करते करते प्रोफेसर के पद तक पहुंच चुके थे। उनके लिए पीछे मुड़कर देखना शायद ज्यादा मुश्किल होता होगा, क्योंकि निरंतरता में यादों को संजोकर दिल के किसी कोने में छिपाकर समेटे रखना सरल नहीं। वर्तमान से निकलकर भूतकाल में जाना आम आदमी के लिए आसान नहीं। वैसे भी रोजमर्रा के जीवन में, रोटी-दाल के चक्कर से निकल पाना हरेक के लिए संभव नहीं।
अपने ही कॉलेज में, अपने प्रॉध्यापकों के बीच में, अभी कुछेक रिटायर नहीं हुए थे, किसी भी पूर्व छात्र के द्वारा संक्षिप्त उदबोधन देना, इन विशिष्ट लमहों को जीवन में एक पर्व के समान माना जाना चाहिए। मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं जो अपने शिक्षकों के बीच में, अपने लेखन के अनुभवों को बांटकर, उनसे अतिरिक्त आशीर्वाद प्राप्त कर सका। उनके लिए मैं आज भी एक युवा छात्र ही था। और उनके सामने जाते ही मुझमें भी बाल-सुलभ शरारतें हिचकोले मारने लगी थीं। मैं एक बार फिर अपनी उम्र से कहीं छोटे होने जैसा व्यवहार कर रहा था। घर-परिवार-समाज में बुजुर्गों के रहते हुए हम सदैव छोटे बने रहते हैं। इस सत्य को हम जानते तो हैं मगर इसका अनुभव किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस दौरान वर्तमान छात्रों से बातचीत हुई और कुछ बिंदुओं ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था। तकरीबन सभी छात्रों के पास मोटरसाइकिल और हॉस्टल के कमरे में कंप्यूटर मिला। संचार के युग में इंटरनेट का होना औचित्यपूर्ण लगा परंतु मोबाइल की आवश्यकता पर मैं असमंजस में था। सैकड़ों की तादाद में बाइक के खड़े होने से हॉस्टल में चलने-फिरने की जगह नहीं रह गई थी। यह दृश्य हर दूसरे कॉलेज के छात्रावास में देखा जा सकता है। इसकी प्राथमिकता व जरूरत पर मेरी ओर से एक बड़ा प्रश्नचिह्न उभरा था। युवावस्था में यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो है ही, माता-पिता पर पैसे का अतिरिक्त बोझ। नयी पीढ़ी के लाखों-हजारों छात्रों के द्वारा खरीदी जाने वाली मोटरसाइकिल के कारण एक व्यवसायी को तो फायदा हो सकता है लेकिन प्रकृति का बेवजह दोहन और फलस्वरूप पर्यावरण को असंतुलित करना, निष्पक्ष बहस का मुद्दा होना चाहिए। तमाम हॉस्टल, कॉलेज से तकरीबन किलोमीटर के फासले पर होंगे और इस उम्र में इतनी दूरी पैदल तय की जानी चाहिए। घास और झाड़ियों के बीच में से सुबह-दोपहर-शाम चार-छह बार पैदल चलना, जाने-अनजाने ही स्वस्थ शरीर के लिए संजीवनी-बूटी का काम कर सकता है। मजबूत शरीर किसी भी कीमत पर चारदीवारी के अंदर बंद जिम के द्वारा नहीं बनाया जा सकता। इन आधुनिक उपकरणों से शरीर को गठीला या पतला तो बनाया जा सकता है, स्वस्थ नहीं। इसीलिए स्कूल-कॉलेज जीवन में पेट्रोलचलित वाहन छात्रों को देने के मुद्दे पर परिवार-समाज व कॉलेज प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है। हां, शहर और मार्केट दूर होने पर, पैदल जाना हमेशा संभव नहीं, ऐसे में साइकिल एक बेहतर विकल्प हो सकती है। अन्यथा नियमित बस की व्यवस्था एक उत्तम साधन होगा। यह सामूहिक और सामाजिक व्यवहार में अपनत्व भी बढ़ाता है। वरना आधुनिक तकनीकियां व सुविधाएं इंसान को इंसान से दूर करती हैं। आज के युवा छात्रों में एकाकीपन और उससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों को बढ़ते हुए आम देखा जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि इन वर्षों में छात्राओं ने अधिक विकास किया है। उच्चशिक्षा में लड़कियों की बढ़ती संख्या इस क्षेत्र में इनकी सफलता का प्रमाण है। बातचीत करने पर आसानी से समझा जा सकता है कि आधुनिक युवावर्ग में लड़कियां अधिक स्वतंत्रत होने के साथ-साथ समझदार, सतर्क, स्वावलंबी, स्वाभिमानी, ऊर्जा व स्फूर्ति से भरपूर हैं। वे लड़कों से कहीं अधिक मेहनती, केंद्रित और संतुलित दिखाई दीं। उनके सपने उनके अपने थे और आदर्श महान। जबकि अधिकांश लड़के इंजीनियर बनते ही नौकरी और पैकेज के चक्कर में अधिक दिखाई दिए। यहां सामाजिक दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारी भी कारण हो सकती है। शायद यही कारण है जो अधिकांश कमाने और बसने के लिए आतुर दिखे। हां, आईआईएम व मैनेजमेंट का प्रभाव नजर आया। इस क्षेत्र में भी जाने के लिए लड़कियों में अधिक उत्सुकता नजर आई। प्रशासनिक और पुलिस सेवा में जाने का जुनून भी कन्याओं में अधिक दिखाई दिया। यह आश्चर्य करने वाला था।
यह सर्वविदित है कि हिन्दुस्तान में अव्वल छात्र आमतौर पर इंजीनियरिंग की ओर चले जाते हैं। इसे अन्य क्षेत्र के महान व सफल लोग अन्यथा न लें। अगर यही छात्र अपने प्राकृतिक व बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल अन्य क्षेत्रों में करें तो कमाल कर सकते हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री के कारण कई मामलों में वो अपनी संभावनाओं को सीमित कर लेते हैं। वे एक अच्छे वकील बन सकते हैं, मीडिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ सकते हैं। कला के क्षेत्र में भी संभावनाओं की कमी नहीं। छात्रों के बीच जाकर यह सवाल पूछने पर कि राजनीति में जाना उनके जीवन की मंजिल क्यों नहीं? स्वयं का व्यवसाय क्यों नहीं? अधिकांश के पास इसका सीधा जवाब नहीं था। शायद जोखिम लेने की इच्छाशक्ति नहीं थी। यहां सवाल उठता है कि इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी क्या वे एक सफल व अच्छे संपादक और लेखक नहीं बन सकते? तकनीकी के क्षेत्र में हजारों-लाखों न्यायिक उलझनों को सुलझाने के लिए वकालत नहीं कर सकते? वे कम से कम एक अच्छे विज्ञान फंतासी के लेखक तो बन ही सकते हैं। और फिर विज्ञान और तकनीकी तो सभी व्यवसाय के केंद्र में होता है। यहां वे बेहतर ढंग से हाथ आजमा सकते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी और सामाजिक कार्य के लिए समर्पित व्यक्तित्व वाले छात्र थोड़ा कोशिश करें तो राजनीति में भी चमका जा सकता है। अगर आज की युवा पीढ़ी में से होनहार छात्र राजनीति में नहीं जाएंगे तो फिर विश्वपटल पर देश को महाशक्ति बनाए जाने का सपना कैसे पूरा होगा? इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं था। यह इतना आसान भी नहीं।
भोपाल एक बेहद खूबसूरत शहर है। विशिष्ट संस्कृति व स्थानीय बोली यहां की विशेष पहचान है। खुशी इस बात की है कि विभिन्न व्यवस्थाओं ने इन्हें बनाए रखने की सफल कोशिश की है। दशकों से, भारत भवन के कारण, भोपाल कला, साहित्य व रंगमंच के क्षेत्र में देश का केंद्र बिंदु रहा है। उसी शहर में एक साहित्य-प्रेमी के द्वारा साहित्यकारों की यादगार वस्तुओं को संग्रहीत करने की कल्पना साकार रूप ले रही है। लोकप्रिय साहित्यकारों की पांडुलिपियां व पत्रों आदि को संग्रह कर दुष्यंत पांडुलिपि संग्रहालय का अस्तित्व अपनी अनोखी पहचान बनाने में कामयाब हुआ है। यह अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है जबकि अभी प्रारंभिक अवस्था में है। देश-विदेश का छोटा-बड़ा हर लेखक, भोपाल आने पर इस संग्रहालय को देखने अवश्य जाता है। एक व्यंग्यकार ने तो यहां तक कह दिया कि यहां आकर लगता है कि अब मर ही जाएं, जिससे कि कम से कम मेरी व्यक्तिगत चीजें भी इस संग्रहालय में जगह पा सकें, और मैं हमेशा के लिए जीवित रह सकूं। मुझे भी यहां पर बतौर लेखक स्थानीय पत्रकारों, लेखकों, पाठकों व सृजनकर्ताओं से बातचीत का मौका मिला। अपने ही शहर में एक नयी पहचान प्राप्त करने का यह सुखद अनुभव था।
मनोज सिंह
मंगलवार, 2 मार्च 2010
कैलाश गुरु स्वामी ने लिखी उर्दू की दुर्लभ विधा पर किताब
सीहोर। नगर के शायर डाॅ. कैलाश गुरु स्वामी ने 18 वर्षेेा की मेहनत के बाद उर्दू की ऐसी जटिल विधा पर किताब लिखने में कामयाबी पाई है, जो दुर्लभ मानी जाती है। दिल्ली के नेशनल बुक टस्ट ने इसके प्रकाशन की मंजूरी दे दी है।
उर्दू में शायरी आम बात हैं लेकिन छन्द, व्याकरण और मेजरमेंट के साथ कुछ भी कहना कठिन। अरुज ऐसा छन्द होता है, जिसके मुताबिक शायरी करना बिरली बात है। डाॅ. स्वामी का यह प्रयास इसलिये भी सार्थक है, क्योंकि हिन्दुस्तान में अरुज के जानकारों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
62 वर्षीय डाॅ. स्वामी ने 1992 में इस विधा पर किताब लिखने का काम शुरू किया था। 220 पृष्ठों की पाण्डुलिपि में उन्होंने शेर ग़ज़ल कहने के पैरामीटर का विस्तृत उल्लेख किया है। उर्दू में दो हजार से अधिक ग़ज़लें और कुछ किताबें लिखने वाले श्री स्वामी कई सम्मानों से नवाज़े जा चुके हैं। 12 वर्ष की उम्र से शायरी कर रहे डाॅ. स्वामी के इल्म का बड़े शायर भी लोहा मानते हैं। कई शायर उनसे अपनी ग़ज़लों के मीटर सुधरवाते हैं।
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
दुष्यन्त कुमार अलंकरण श्री सोम ठाकुर को
भोपाल। दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय द्वारा वार्षिक अलंकरणों की घोषणा कर दी गई। देश के सुविख्यात गीतकार श्री सोम ठाकुर को गरिमामय समारोह में दुष्यन्त कुमार अलंकरण से सम्मानित किया जायेगा।
संग्रहालय की विज्ञप्ति के अनुसार दुष्यन्त कुमार अलंकरण के साथ ही संग्रहालय द्वारा दिया जाने वाला सुदीर्घ साधना सम्मान इस बार वरिष्ठ कवि श्री भगवत रावत एवं सुविख्यात कथाकार श्रीमती मालती जोशी को दिया जायेगा। आंचलिक रचनाकार सम्मान कोण्डागांव (बस्तर) निवासी श्री हरिहर वैष्णव को दिये जाने की घोषणा की गई।
उल्लेखनीय है कि 30 दिसम्बर 1997 को स्थापित संग्रहालय द्वारा 1998 से ही दुष्यन्त कुमार अलंकरण दिया जा रहा है। पहले वर्ष यह अलंकरण सुविख्यात ग़ज़लकार श्री अदम गोंडवी को दिया जा चुका है। प्रतिवर्ष दिये जाने वाले अलंकरण से अभी तक श्री अदम गोंडवी, श्री सूर्यकान्त नागर, डाॅ. ज्ञान चतुर्वेदी, डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र, श्री बालकवि बैरागी, श्री लीलाधर मंडलोई, डाॅ. श्रीराम परिहार, श्रीमती चित्रा मुद्गल, श्री निदा फ़ाज़ली एवं डाॅ. अशोक चक्रधर को अलंकृत किया जा चुका है।
इसके साथ ही सुदीर्घ साधना सम्मान और आंचलिक रचनाकार सम्मान से अभी तक श्री गोपाल दास नीरज, प्रो. नईम, श्री बाबूलाल सेन, श्री हनुमन्त मनगटे, श्री एनलाल जैन, श्री राजेन्द्र अनुरागी, श्री रामचन्द्र सोनी विरागी, डाॅ. गोपाल नारायण आवटे, डाॅ. प्रेमशंकर रघुवंशी, श्री लक्ष्मण मस्तूरिया, श्री आबिद सुरती एवं डाॅ. प्रेमलता नीलम को सम्मानित किया जा चुका है।
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